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उत्तराखंड में सड़क हादसों का कहर: तीन दिन, 14 मौतें, कब थमेगा यह रक्तपात?क्या कहती हैं ये मौतें?

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बेबाक चर्चा

उत्तराखंड की सड़कों पर मौत तांडव कर रही है। बीते तीन दिनों में प्रदेश के अलग-अलग जिलों में हुए सड़क और अन्य हादसों में 14 लोगों की दर्दनाक मौत हो चुकी है। इन घटनाओं ने एक बार फिर यह सवाल खड़ा कर दिया है कि आखिर कब थमेगा यह सड़क सुरक्षा का संकट? और क्या सिर्फ सरकारी दावे ही पर्याप्त हैं?

तीन दिन, आठ हादसे, एक सवाल – जिम्मेदार कौन?

पिथौरागढ़, नैनीताल और ऊधमसिंहनगर जिलों में बीते 24 घंटों में हुए आठ अलग-अलग हादसों में नौ लोगों ने जान गंवाई है। सबसे अधिक चिंता की बात यह है कि मरने वालों में युवा, श्रमिक और वृद्ध सभी शामिल हैं — यानी यह खतरा सब पर मंडरा रहा है।

रुद्रपुर में सोमवार रात पारले चौक पर बाइक डिवाइडर से टकरा गई।

इसमें हल्द्वानी से लौट रहे ममेरे भाई मोहित चौधरी (24) और योगेश चौधरी (22) की मौके पर मौत हो गई।

दिनेशपुर में शटरिंग मजदूर मुकेश मंडल (25) की बाइक बिजली के खंभे से टकरा गई।

किच्छा में ट्रेन की चपेट में आने से 18 वर्षीय गुरमीत सिंह की मौत हो गई।

खटीमा के पास सुनपहर में बाइक सवार 65 वर्षीय कश्मीर सिंह की जान चली गई,

तो वहीं पिथौरागढ़ में मेडिकल कॉलेज की चौथी मंजिल से गिरकर मजदूर अरविंद सिंह की मौत हो गई।

नैनीताल के जोखिया क्षेत्र में एक कार 50 मीटर गहरी खाई में जा गिरी,

जिसमें अल्मोड़ा निवासी 71 वर्षीय उमा वर्मा की मौत हो गई।

भीमताल के कुंडल गांव में घास काट रही लक्ष्मी देवी (40)पर पत्थर गिर गया,

वहीं हल्दूचौड़ में ट्रैक्टर ट्रॉली की चपेट में आने से श्रमिक हीरालाल (60) की जान गई।

क्या कहती हैं ये मौतें?

इन मौतों का विश्लेषण करें तो साफ है कि कारण अलग-अलग हैं — कहीं तेज रफ्तार, कहीं लापरवाही, कहीं निर्माणस्थलों की सुरक्षा में चूक, तो कहीं ट्रैफिक नियमों की अवहेलना। लेकिन नतीजा एक है: ज़िंदगी का अंत।

क्या कर रही है सरकार?

सरकार का दावा है कि सड़क हादसों को रोकने के लिए अभियान चलाए जा रहे हैं, ट्रैफिक नियमों को सख्ती से लागू किया जा रहा है। पर जमीनी हकीकत कुछ और कहती है। ज़्यादा गड्ढों वाली सड़कों, रात में रोशनी की कमी, ओवरलोडिंग, नशे में ड्राइविंग और हेलमेट जैसे सुरक्षा उपकरणों की अनदेखी जैसे मुद्दे अभी भी पूरी तरह से नहीं सुलझे हैं।

समाधान क्या है?

सड़क सुरक्षा शिक्षा को स्कूली पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया जाना चाहिए।

स्थानीय प्रशासन को जवाबदेह बनाया जाए कि उसके क्षेत्र में कितनी दुर्घटनाएं और क्यों हो रही हैं।

चालकों की नियमित स्वास्थ्य जांच और नशा परीक्षण अनिवार्य हो।

सड़कों की गुणवत्ता, साइन बोर्ड, स्ट्रीट लाइटिंग और ट्रैफिक पुलिस की उपस्थिति सुनिश्चित की जाए।

जनजागरण अभियान चलाकर जनता को हेलमेट, सीट बेल्ट और ट्रैफिक नियमों के प्रति जागरूक किया जाए।

आखिर में एक सवाल: क्या अगला नंबर हमारा है?

जब तक प्रशासन और आम नागरिक मिलकर एकजुट होकर सड़क सुरक्षा को गंभीरता से नहीं लेंगे, तब तक ये मौतें सिर्फ आंकड़े बनकर रह जाएंगी। ज़रूरत है एक सामूहिक चेतना की — ताकि सड़कों पर हम चलें, मौत नहीं।

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